नीड़ का निर्माण फिर-फिर : हर साल बसता है गांव

बरसात खत्म हो चुका है। बागमती नदी अपना तांडव दिखा कर लौट चुकी है। घर बह चुके हैं, फसलों का नामों निशान नहीं बाकी है पर उम्मीद अब भी जिंदा है। कृपाल साहनी बड़े मनोयोग से बांस काट रहे हैं। पूछने पर हंसी में निराशा को छुपा कर बताते हैं “हमारी यही कहानी है हर बार हम घर बनाते हैं ताकि नदी उसे बहाकर ले जाए”।

बाढ़ के बाद तबाही का मंजर ।

दरअसल, बिहार का नरकटिया गांव पिछले 87 सालों में 43 बार बाढ़ में बह चुका है। ग्रामीण बरसात खत्म होने का इंतजार करते है ताकि फिर से गांव को बसा सके। कई बार महीनों तक पूरा गाँव नाव पर ही रहता है। शिवहर जिला के अंतर्गत आने वाले 'नरकटिया' गाँव में तीन सौ घर हैं। गांव की आबादी करीब डेढ़ हजार है। यह गाँव बाढ़ की विभीषिका से काफी दूर था। लेकिन वर्ष 1943 के भूकंप के बाद बागमती नदी धारा बदल कर इस गांव के करीब आ गई।


प्रशासनिक लापरवाही ने किया बेड़ा गर्क-

गांव के बाहर निर्माणाधीन बेलवा डैम ।

गांव से थोड़ा पहले 'बेलवा' के पास बागमती नदी का तटबंध समाप्त हो जाता है। यहाँ से करीब तीन किमी दूर देवपुर (पूर्वी चंपारण) तक बांध नहीं है। इतनी दूरी तक नदी की धारा स्वतंत्र है। भूमि अधिग्रहण और मुआवजा के पेंच के कारण तीन किमी तक तटबंध का काम पूरा नहीं किया जा सका है। ग्रामीण बताते हैं कि जब तक तटबंध का काम पूरा नहीं हो जाता तब तक बाढ़ की समस्या बनी रहेगी।
स्थायी घर बनाने से डरते है ग्रामीण-

नरकटिया गांव के निवासी ।

संजय साहनी बताते है कि बाढ़ की तबाही के कारण कोई पक्का घर नहीं बनाता है। गांव में सिर्फ आठ पक्का मकान है। वो इशारा कर के दिखाते हैं कि पहले मेरा घर यहाँ था, फिर यहाँ , फिर यहाँ, अभी मेरा घर यहाँ है। अगले वर्ष का पता नहीं। गांव के बुजुर्ग मदन साहनी कहते हैं कि अब तक 40 बार यह कहर देख चुके हैं 20 बार खुद का घर बना चुके हैं।

गांव के नक्शे में परिवर्तन होता रहता है-

संगीता देवी का कहना है कि उन्हें किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिलता है। गांव का जायजा लेने कोई प्रशासनिक अधिकारी नहीं आता है।
संगीता की समस्या पर मुखिया कमलेश पासवान ने कहा कि “बाढ़ के कारण ग्रामीण हर वर्ष अलग-अलग जगहों पर घर बनाते रहते हैं। इससे गांव का नक्शा बदलते रहता है। इसी कारण विभिन्न सरकारी योजनाओं जैसे नल-जल, सड़क, शैचालय निर्माण आदि का लाभ ग्रामीणों को नहीं मिल पाता है”।

हालात-ए-शिक्षा-

सपनों वाली आंखें ।

गांव के पास ही एक प्राथमिक स्कूल है। मनोज राय बताते है कि शिक्षकों का दर्शन ही दुर्लभ है। फिर भी स्कूल की इमारत उनकी बहुत मदद करती है। बाढ़ आने पर बड़ी संख्या में लोग स्कूल में शरण लेते है। वही एक शिक्षक ने बताया कि कई अन्य सरकारी योजना की जिम्मेदारी शिक्षकों को दी जाती है। अक्सर उनका डेपुटेशन दूसरे स्थानों पर होता रहता है।जहां जीवन जीना ही मुश्किल हो वहां शिक्षा व्यवस्था बेहतर होने की कल्पना करना बेमानी लगता है।

नाव से है प्रतिष्ठा-

बरसात में यातायात का एक मात्र साधन नाव ही बचता है। इसलिए घर में नाव होना समृद्धि का विषय बन चुका है। शादी में 11 लोगों की सवारी वाला नाव देने की परंपरा है। जिस घर में नाव नहीं होता वहाँ लोग रिश्ता करने से बचते है। गांव की अधिकांश आबादी मछुआरों की है इस कारण से नाव आर्थिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हो जाता है।

कुछ उजली उम्मीदें भी हैं

बागमती की विकराल धारा के बीच श्रीजोत सहनी हर वर्ष सैकड़ो लोगों की जान बचाते हैं।
वर्ष 2004 में उन्होंने 125 लोगों की जान बचाई थी। यह बाढ़ सबसे भयानक माना जाता है। तत्कालीन जिला अधिकारी ने उन्हें सम्मानित भी किया था। 60 वर्षीय श्रीजोत साहनी का कहना है कि पूरा गांव मेरे लिए परिवार है। मेरा प्रयास है कि कोई भी ग्रामीण डूब कर नहीं मरे।

यह गांव प्राकृतिक त्रासदी और प्रशासनिक लापरवाही पर मानवीय जिजीविषा का परचम बुलंद करता है। कृपाल की आंखों में चाहे जितनी निराशा हो पर उनके जैसे लोग हर बार नीड़ का निर्माण कर ही लेते हैं।


 


Write a comment ...